Wednesday, April 18, 2007

और सब कुछ जानकर अनजान हो तुम

अधर पर तुमने
हिमानी धर लिया
और सब कुछ जानकर अनजान हो तुम

दिवस बीता और बीती कितनी सदियाँ
अश्रुओं से बही जाने कितनी नदियाँ
पीर का सागर समाया हृदय मेरे
आँधियाँ तूफान आई हैं घनेरे
पर हृदय पाषाण तेरा नहीं पिघला
फिर भी मेरी हो, मेरी पहचान हो तुम

भावनाओं का समुंदर कितना गहरा
और मावस लगाती दिन रात पहरा
क्यों रूला जातीं बसंती ये हवायें
हर तरफ ख़ामोश-सी लगती फ़िजायें
इक अज़ब तूफान साँसों में समाया
डोलती रहती है पातों-सी ये काया
भूलना मुमकिन नहीं है इस जनम में
तुम ही मेरी हो, मेरी ही प्राण हो तुम

जब तेरे नयनों की भाषा तौल लाया
मेरे मन का गीत कुछ ना बोल पाया
तब ग़ज़ल इक शे’र बनकर रह गई
और मेरा कवि ये सब सह गई
दिल की हर तनहाइयों में तेरी छाया
श्वास में निःश्वास में बस तुझे पाया
तू भले माने न माने ये अलग है
तुम ही मेरी उदय औ अवसान हो तुम

क्या पता ये जीव कब तक जी सकेगा
विरह का ये घूँट कब तक पी सकेगा
मिलन की घड़ियाँ पुनः आये ना आये
और दिल ये बात सुन पाये न पाये

घर घड़ी तूफान भी सहता रहूँगा
सौ समुन्दर पार हो बहता रहूँगा
पर किनारा मिलेगा, यह ध्रुव अटल है
तुम ही मेरी नाव हो, जलयान हो तुम

1 comment:

Anonymous said...

kya jabardast kavita hai yaar..tumhara hai ya kahin se maare ho