अधर पर तुमने
हिमानी धर लिया
और सब कुछ जानकर अनजान हो तुम
दिवस बीता और बीती कितनी सदियाँ
अश्रुओं से बही जाने कितनी नदियाँ
पीर का सागर समाया हृदय मेरे
आँधियाँ तूफान आई हैं घनेरे
पर हृदय पाषाण तेरा नहीं पिघला
फिर भी मेरी हो, मेरी पहचान हो तुम
भावनाओं का समुंदर कितना गहरा
और मावस लगाती दिन रात पहरा
क्यों रूला जातीं बसंती ये हवायें
हर तरफ ख़ामोश-सी लगती फ़िजायें
इक अज़ब तूफान साँसों में समाया
डोलती रहती है पातों-सी ये काया
भूलना मुमकिन नहीं है इस जनम में
तुम ही मेरी हो, मेरी ही प्राण हो तुम
जब तेरे नयनों की भाषा तौल लाया
मेरे मन का गीत कुछ ना बोल पाया
तब ग़ज़ल इक शे’र बनकर रह गई
और मेरा कवि ये सब सह गई
दिल की हर तनहाइयों में तेरी छाया
श्वास में निःश्वास में बस तुझे पाया
तू भले माने न माने ये अलग है
तुम ही मेरी उदय औ अवसान हो तुम
क्या पता ये जीव कब तक जी सकेगा
विरह का ये घूँट कब तक पी सकेगा
मिलन की घड़ियाँ पुनः आये ना आये
और दिल ये बात सुन पाये न पाये
घर घड़ी तूफान भी सहता रहूँगा
सौ समुन्दर पार हो बहता रहूँगा
पर किनारा मिलेगा, यह ध्रुव अटल है
तुम ही मेरी नाव हो, जलयान हो तुम
Wednesday, April 18, 2007
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1 comment:
kya jabardast kavita hai yaar..tumhara hai ya kahin se maare ho
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